परिवार और मैं
हाँ वो पारिवारिक है और मैं नहीं
वो अपनी लड़ायी परिवार को साथ ले के लड़ता है
और मैं लड़ती हूँ अकेले
तभी तो मानती हूँ
कि वो पारिवारिक है, और मैं नहीं
उसे अच्छा लगता है माँ पापा के साथ पीना सुबह की चाय,
और मैं उठते ही घर से बाहर दौड़ जाती हूँ
कि कहीं ग़लती से भी माँ पापा को मेरे चेहरे पे शिकन दिख ना जाए ।।
हर रोज़ परिवार के साथ सादा खाना उसे पारिवारिक बनाता है
मेरा दोस्तों के साथ चाट के मज़े उड़ाना मुझे परिवार से दूर कर जाता है ।।
उसके लिए ज़रूरी है अपने पेट के छालों का ख़्याल रखना
मेरे लिए ज़रूरी है कि अगर तबियत बिगड़े तो कोई बवाल ना करना,
क्यूँ कि वो पारिवारिक है और मैं नहीं
वो चला जाता है जब तब फ़िल्म देखने अपनी पत्नी को ले के माँ पापा के साथ
और मैं ?
मैं तो गड़ लेती हूँ ज़मीन में जब फ़िल्म के हीरो हेरोईन आते है पास
बस फिर मैं फ़िल्म देखने परिवार के साथ नहीं जाती
शायद इसीलिए मैं पारिवारिक लोगों की गिनती में नहीं आती ।।
वो पारिवारिक ही कहलाता है जब संडे को कुछ अच्छा सा बना के , घर में सबको खिलाता है
और मैं गूगल से पूछती रह जाती हूँ...वो क्या होता है जो सबकी ज़ुबान को एक सा भा जाता है
उसे हारी बीमारी में माँ पापा का साथ होना सुरक्षित लगता है
मेरा तो नन्हा सा ज़ुकाम भी माँ पापा के सुकून को अव्यवस्थित करता है
तो लो मैं मेरी बीमारियाँ छुपा के पारिवारिक लोगों की गिनती से हट जाती हूँ
... खुद को बाग़ी कहला के ये मान लेती हूँ
कि हाँ वो पारिवारिक है और मैं नहीं ।।
वो जब ऑफ़िस से परेशान हो के घर को आता है
उसे अच्छा लगता है अपनी पत्नी को बातों में शामिल करना
वो कह लेता है अपने बॉस के दुरव्यवहार के क़िस्से
और बयाँ करता है दिन भर की तकलीफ़ के छोटे छोटे हिस्से
उसकी पत्नी जब किचन में दौड़ जाती है उसके लिए कुछ मनपसंद बनाने को
तब पापा आ जाते है उसके सर पर हाथ रख अपने सहारे का एहसास उसे कराने को
मम्मी कुछ ठंडा सा तब बना लाती हैं
और उसका छोटा सा बेटा अपनी टॉय कार से उसका मन भटका लेता है ।
ऐसे दिन रोज़ बिता कर वो पारिवारिक हो जाता है
और मैं जो पारिवारिक हूँ ही नहीं , अपनी दिनचर्या की जंग को और कस के समेट लेती हूँ अपनी मुट्ठी में
सोचती हूँ क्यूँ शामिल करूँ उन्हें अपने संघर्षों के क़िस्सों में
और उन्हें मजबूर बनाऊँ
क्यूँ ना बेवजह मुस्कुरा कर उनके हठों को हंसी दे जाऊँ
वैसे तो वो पारिवारिक ही है क्यूँ के वो पा लेता है सुकून उन सबके कंधो पर सर रख के रो लेने में
और मैं वैसे भी व्यस्त रहती हूँ अपने संघर्षों को अपनी मुस्कुराहट के नीचे ढकने में
देखो तो वो जीत ता चला जा रहा है
परिवार का दिल और माँ पापा का ध्यान ... अपने दुःख सुख में उन्हें शामिल कर के
और मैं हारती चली जा रही हूँ ज़िंदगी के ये रिश्ते अपनी तकलीफ़ अपने तक रख के
और हारूँ भी क्यूँ ना ?
आख़िर वो ही तो पारिवारिक है
और मैं बिलकुल नहीं