Thursday, December 3, 2009

नया घर

उसके लिए वक़्त बदल रहा है , मेरे लिए वक़्त को बदला जा रहा है ...... मुझसे उसे छुड़ाने बारात सज कर आई है ... मेरी डोली उठवाने दुनिया ज़िम्मेदारी क कंधे लायी है

कैसी कशमकश है यह , उसकी ज़िम्मेदारी बनना चाहती थी ... सिर्फ प्रेमिका हो कर रह गयी! घर की बेटी होना चाहती थी ....ज़िम्मेदारी बन कर रह गयी

बेटी नाम की ज़िम्मेदारी को बहुत धूम धाम से निभाया गया ... लोग मेरी खुशियों क जनाजे का उत्सव आज भी नहीं भूले होंगे

वक़्त की मुस्कराहट को देख कर खिसिया रही हूँ मैं , किन ख्यालों में गुम फेरे ले रही हूँ , किस होश मे सुन्न शहर छोड़ चली हूँ कुछ नहीं पता

वक़्त अपनी बेबसी का बदला ले रहा है मुझे से ...आँखों के आंसू सूख गए अपने नए घर को देख कर मैं इस घर में भी मेहमान ही हूँ पर यहाँ मैं अपना वजूद भी नहीं तलाशना चाहती ...

क्या ये मेरी यादों क झोंके है जो मुझे इस घर से जुड़ने नहीं दे रहे ? अपने लिए फिर वक़्त निकाला मैंने बारीकी से ढूंढा वजह को ... और अनगिनत वजह निकल आयीं इस नए घर से न जुड़ने की

कितना सारा झूठ का कचरा जमा था यहाँ , मैं मेरे लिए जगह कहाँ से बनाती ?

हाँ मेरी आँखों में इतने आंसू थे की हर तस्वीर धुंधली लग रही थी .. मै नहीं पहेचान पाई इस नए रिश्ते के बोझ में दबे झूठ को ... पर जो मेरी ज़िम्मेदारी निभा रहे थे वो किस मद में चूर थे?

मेरी ज़िम्मेदारी के आगे मेरी खुशियाँ नज़रंदाज़ हो गयी घर क मेहमान को विदा करने की धूम पूरी थी पर खुशियों की गूंज पर किसका ध्यान था ?

ध्यान तब होता जब मैं बेटी ही होती ...पर मैं तो बेटी भी थी ... मेहमान, ज़िम्मेदारी और बेटी भी ...

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