Saturday, April 10, 2010

वो भी दिन था ...

वो भी दिन था ... वो दिन जब मुझे ऑफिस नहीं जाना पड़ा .. जब कानों को चीरती सी उनकी आवाज़ निकल आई थी ...आज तुम्हारी " सगाई" है...वो दिन जब मै सहमी सिमटी गुडिया सी मुट्ठी बंधे बैठ गयी उस अंजाने से  शख्स के सामने जिसके साथ जिंदगी बिताने का मुझे हुक्कम मिला था ...


वो भी दिन था जब शादी को नए गहनों और कपड़ो का मेल समझती झल्ली सी छत पर बैठी मैं चांदनी रात में मेहँदी से रंगी हुई अपनी हथेलियों की खुशबु लेती रही ... पता नहीं कब तक ... कितनी रात गए निदिया ने घेरा था अब याद नहीं है ....

वो भी दिन था ... जब वर मालाएँ उलझ पड़ी थी ... टूट चली थी ... मुझे इशारे देती सी ...की रुक जाओ ...ठहरो ...जरा और सोच लो ... और मैं जाने किन ख़यालो में गुम कठपुतली सी नाचती रही नाचती रही ...



वो भी दिन था जब ...गुमान था खुद पर हर हालत को काबू कर लेने का ...आज याद आता है वो दिन .... काश ना आया होता ...

1 comment:

  1. hmm.....nice one about engagement.....it doesn't talk much

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